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1 दिन पहले

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मिन्हाज मर्चेंट, लेखक, प्रकाशक और सम्पादक - Dainik Bhaskar

मिन्हाज मर्चेंट, लेखक, प्रकाशक और सम्पादक

2024 के लोकसभा चुनाव के पहले चरण का मतदान शुरू होने में अब चार माह से भी कम समय बचा है। क्या 28 दलों के इंडिया गठबंधन ने भाजपा द्वारा विकसित की गई दुर्जेय चुनावी मशीन को हराने की रणनीति बनाई है? इसका संक्षिप्त उत्तर है- नहीं। एक लोकतंत्र में विपक्ष को मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना होता है।

यदि वह 2024 में सत्ता में आता है तो किन आर्थिक नीतियों का पालन करेगा? भारत-अमेरिका रणनीतिक साझेदारी को कैसे मजबूत करेगा? इस तरह के सवालों का जवाब केंद्र की हर नीति का विरोध करना या मुफ्त सुविधाओं का वादा करना नहीं हो सकता, जैसा कि कांग्रेस ने कर्नाटक और तेलंगाना में सफलतापूर्वक किया।

उसने मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में भी यही करने की कोशिश की थी। अशोक गहलोत, भूपेश बघेल और कमलनाथ ने सॉफ्ट हिंदुत्व के साथ मुफ्त की सौगातों की पेशकश की। उन्होंने इंडिया गठबंधन की दूसरी पार्टियों से सीटें साझा करने से इनकार कर दिया। लेकिन बाजी उलटी पड़ गई।

विपक्षी गठबंधन के पास समय कम और विकल्प सीमित हैं। भारत जोड़ो यात्रा से उठा राहुल गांधी का करिश्मा फीका पड़ गया है। हिंदी पट्टी में तिहरी हार के बाद उन्होंने दक्षिण पूर्व एशिया की अपनी यात्रा रद्द कर दी। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में जीत की उम्मीद में यह यात्रा 8 से 15 दिसम्बर के बीच निर्धारित की गई थी।

राहुल इंडोनेशिया, मलेशिया, वियतनाम और ब्रुनेई की यात्रा लोकसभा चुनावों से पहले कांग्रेस की साख को चमकाने के लिए करने वाले थे। स्थानीय नेताओं और यूनिवर्सिटी छात्रों के साथ उनकी बातचीत भी अंतिम क्षण में रद्द कर दी गई।

विपक्षी गठबंधन के कुछ लोगों का मानना है कि कांग्रेस की हार उनके लिए वरदान साबित हो सकती है। सीट बंटवारे पर चर्चा में कांग्रेस नेता अब अधिक उदार होंगे। हिंदी पट्टी के राज्यों में हार से पता चला है कि कांग्रेस ने अपना वोट शेयर नहीं खोया तो उसमें कुछ जोड़ा भी नहीं है।

हालांकि भाजपा ने कई सीटें बेहद कम अंतर से जीतीं। यदि कांग्रेस ने सपा से सीटें शेयर की होतीं तो वह त्रिकोणीय लड़ाई में भाजपा के अस्थायी मतदाताओं को अपने पाले में कर लेती, जिससे भाजपा की जीत का पैमाना सीमित हो जाता। लेकिन तीन प्रमुख राज्यों में हार के बाद कांग्रेस ने विश्वसनीयता खो दी है।

हालांकि चुनावी नतीजे दक्षिण में उसकी बढ़ती ताकत की ओर भी इशारा करते हैं। क्या तेलंगाना की जीत से कांग्रेस को 2024 के लोकसभा चुनाव में कोई मदद मिल सकती है? याद रखें कि भाजपा ने तेलंगाना में अपना वोट शेयर दोगुना कर 14 प्रतिशत कर लिया और आठ सीटें जीत ली हैं।

2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को वहां 19.4 प्रतिशत वोट मिले थे और 17 में से 4 सीटों पर जीत हासिल की थी। यदि वह 2024 में भी कांग्रेस और बीआरएस के साथ त्रिकोणीय लड़ाई में इस मोमेंटम को जारी रखती है तो वह तेलंगाना में 7 सीटें तक जीत सकती है।

लेकिन दक्षिण को भाजपा से मुक्त रखने की कांग्रेस की रणनीति विशेषकर कर्नाटक में विफल हो सकती है। 2019 में भाजपा ने कर्नाटक की 28 लोकसभा सीटों में से 25 सीटें जीती थीं। सहयोगी जेडीएस के साथ, और कर्नाटक कांग्रेस नेतृत्व में बढ़ती गुटबाजी के चलते, वह फिर से 20 से अधिक सीटें जीत सकती है। 2019 में भाजपा ने पांच दक्षिणी राज्यों की 129 संसदीय सीटों में से 29 ही जीती थीं।

2024 में अन्नाद्रमुक के साथ ब्रेक-अप से भाजपा को तमिलनाडु की 39 सीटों में से अधिकांश पर चुनाव लड़ने में मदद मिलेगी। वहां पर भाजपा के उभरते सितारे के. अन्नामलाई गेम चेंजर हो सकते हैं। अगर भाजपा आंध्र में टीडीपी के साथ गठबंधन करती है और केरल में रिवर्स ध्रुवीकरण का लाभ उठाती है तो इन दोनों राज्यों के चुनावी नतीजे हमें चकित भी कर सकते हैं।

विपक्षी इंडिया गठबंधन ने यह तो स्पष्ट कर दिया है कि वह किसी भी मुद्दे पर गुण-दोष की परवाह किए बिना मोदी का विरोध ही करेगा। लेकिन इससे मतदाताओं के बीच उसकी विश्वसनीयता नहीं बढ़ेगी। आज सबसे ज्यादा लोकसभा सांसदों वाली विपक्षी पार्टियां कांग्रेस, टीएमसी और डीएमके हैं।

वर्तमान में उनके पास 97 लोकसभा सीटें हैं। ये तीनों ही विधानसभा और लोकसभा चुनाव जीतने के लिए अल्पसंख्यक वोटों पर निर्भर हैं। लेकिन अल्पसंख्यकों का ध्रुवीकरण बहुसंख्यकों के रिवर्स ध्रुवीकरण को भी जन्म देता है। अगर विपक्ष सावधान नहीं रहा तो 2024 में यह उसकी सबसे बड़ी कमजोरी साबित हो सकती है।

विपक्ष का मानना है कि कांग्रेस की हार उनके लिए वरदान साबित हो सकती है। सीट बंटवारे पर चर्चा में कांग्रेस अब अधिक उदार होगी। हिंदी पट्टी के राज्यों में हार से पता चला है कि कांग्रेस ने अपने वोट शेयर में कुछ जोड़ा नहीं है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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